हम सभी लॉक डाउन में बंद है. ये सही समय है जानने का, सोचने
का उनके बारे में जिन्हे पुरे जीवन के लिए लॉक डाउन किया गया था. वो भी एक आयलैंड
पर जहा की हवा बीमार कर देती है और पानी काला पानी कहलाता है और सूरज? सूरज
के तो उन्हें दर्शन ही नहीं होते थे कई कई महीनो तक.
आप सोचिये सगा बड़ा भाई भी उसी जेल में बंद है पर न तो उन्हें देख
सकते है नहीं मिल सकते है और उन्हें कोई सन्देश भेजनेकी भी अनुमति नहीं. तब भी
नहीं जब बड़ा भाई बहोत बीमार हो और उनका ऑपरेशन किया जा रहा हो. ये सब उनके साथ हुआ
था.
आप सोचिये एक बंद कमरे में जहा रौशनी भी नहीं आती - वहा कई कई महीनो
तक बंद करके रखा जाए, शौच भी उसी कमरेमे खुले में करना पड़े, खाने में मोटी
कच्ची एक रोटी और उबली हुई घास की सब्जी, न किसीसे बात, न किसी जीवित
प्राणी का दर्शन - ऐसे ही पड़े रहो एक बंद अँधेरे कमरेमे - ये उनके साथ हुआ था.
कच्ची घानी का तेल निकालने के लिए जो कोलू का उपयोग किया जाता था उसे एक या दो बैल
जोड़े जाते थे - इन्हे उस कोलू को जोता जाता था उस बैल के जगह और सुबह पांच बजे से
दोपहर तीन बजे तक कोलू गोल गोल घुमाकर खींचना पड़ता था. ये काम कर कर के उनके पेट
में हमेशा के लिए दर्द शुरू हो गया, वजन बहोत ही ज्यादा कम हो गया,
खून
के शौच होने लगे, कई बीमारिया जुड़ गयी - पर अंग्रेज़ो को दया नहीं आयी - वो इनके साथ ये
करते रहे.
कई नेता है जिन्होंने आज़ादी की जंग में जेल में जाकर किताबे लिखी
लेकिन इन्हे जेल के अंदर एक छोटा सा कागज ले जाने की भी अनुमति नहीं थी,
एक
छोटी पेंसिल तक इन्हे नहीं दी गयी, लेकिन इन्होने अपने नाखुनो से जेल की
दीवारों पर अजरामर अलौकिक कविताये लिखी, इनकी कविताओं को लता मंगेशकर और उनके
भाई बहनो ने अपनी सुरीली आवाज देकर अजरामर कर दिया है - हाँ वो आज़ादी के लड़ने वाले
वीर तो थे ही पर एक अत्यंत प्रतिभाशाली कवी भी थे. उन्होंने श्री गुरु गोबिंद सिंह
जी के पुरे परिवार के त्याग पर कविता की, उन्होंने १८५७ के स्वतंत्रता क्रांति पर पुस्तक लिखी - तब तक तो अंग्रेज़ो ने यही भरम फैलाया था की १८५७ कि वो तो कुछ
सैनिको की हड़ताल थी. जब की सैनिको के साथ साथ
झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे, नानासाहेब पेशवे,
कई
रजवाड़े, कई किसान, आम नागरिक, शिक्षक, सभी उन सैनिको
के साथ जुड़े थे और अंग्रेज़ो के विरुद्ध
लड़े थे, अगर हमारी एकता में कमी न होती अगर कुछ गद्दार गद्दारी न करते तो
१८५७ में ही हम अंग्रेज़ो को भगा देते. और ये सच इन्होने ही सामने लाया.
हाँ हम स्वातन्त्र वीर विनायक दामोदर सावरकर की ही बात कर रहे
है.
दुःख होता है की सावरकर के बारे में पूरा जाने बिना - आधी अधूरी बातो
पर उनका विरोध किया जाता है. उनके बारे में अनर्गल बाते की जाती है. जिनके पुरे
परिवार ने अपना सर्वस्व देश के लिए समर्पित किया उनकी तस्वीर भारतीय संसद में
लगाने के लिए आज़ादी के बाद कई दशक लग गए और जब उनकी तस्वीर लगी तब भी उसका जमकर
विरोध किया गया.... ये एक चिकित्सा का विषय है की जब सावरकर की तस्वीर लगी तब
डाक्टर कलाम हमारे प्रेसिडेंट थे और कई लोगो के विरोध के बाद भी खुद डाक्टर कलाम
ने सावरकर की तस्वीर का अनावरण कर उन्हें वंदन किया और उन्हें महान देशभक्त कहा.
जो यातनाये सावरकर ने सही उनकी एक परसेंट भी कोई नेता सह ले तो हम
मानेंगे उन्हें सावरकरजी की आलोचना करने का हक़ है.
भारत में प्लेग की महामारी ने आम जनता को त्राहिमाम कर छोड़ा था,
और
तब पुणे में प्लेग के मरीज ढूंढने के बहाने अँगरेज़ आम लोगो के घरों में घुस जाते -
जूते पहनकर घरो में घुसते, लोगो को मरते, गालिया देते,
महिलाओंके
साथ अभद्र व्यवहार करते, कई आम नागरिको को अपमानास्पद और गुलामो
जानवरो से भी गयी गुजरी सजाये देते. ये सब करने वाले मुख्य अंग्रेजी अफसर को पुणे
के निवासी चाफेकर बन्धुओने मार डाला. और उन चाफेकर बंधुओको जब फांसी दी गयी तब
सावरकर एक बालक थे - पूरी रात वो रोते रहे और अंत में उन्होंने अपने घर में मंदिर
में स्थापत महिषासुरमर्दिनि दुर्गा के सामने शपथ ली की में अपना जीवन राष्ट्र को
समर्पित करूँगा. सौभाग्य से आगे उनकी पत्नी ने भी उनका साथ दिया - एक सम्पन्न और
धनि परिवार से आकर भी उन्होंने अपने पति के स्वतन्त्रता संग्राम में शामिल होने के
कारण अत्यंत गरीबी में दिन गुजारे लेकिन कभी दुःख नहीं किया.
सावरकर ने कॉलेज में विदेशी वस्तुओंकी होली कर स्वदेशी को बढ़ावा देने
के आंदोलन में सहभाग लिया और उसका नेतृत्व भी किया - उन्हें सजा के तौर पर कॉलेज
से निकाल दिया गया.
लेकिन चाहे वक्तृत्व हो, भाषण हो, कविता लेखन,
निबंध
या किताबे उन्होंने अपनी विद्वत्ता हर जगह साबित की. वे बैरिस्टर बनने के लिए
इंग्लैंड गए ताकि अंग्रेज़ो का कानून सिख कर उनसेही लड़ सके, वह इंडिया हाउस
और अभिनव भारत जैसे क्रन्तिकारी समुदायों से वजुड़े. उन्हिकि प्रेरणा से
मदनलाल धींगरा ने उस अँगरेज़ अफसर को मार गिराया जिसने बंगाल के दो हिस्से किये और
मुसलमानो के लिए अलग प्रभाग बनाया. उसी समय में सावरकर ने १८५७ कि असली इतिहास
बताने वाली किताब लिखी, कई लेख और कविताये लिखी जो की कई सारे क्रांतिकारियोंके लिए प्रेरणा
कि स्त्रोत बानी, सावरकर की इन्ही बातो से अंग्रेज़ो ने उन्हें सबसे खतरनाक मुल्ज़िम
माना. कोई क्रन्तिकारी कोई एक कृत्य कर के फांसी पर चढ़ जाता पर सावरकर तो पुरे
भारत को क्रांति की प्रेरणा दे रहे थे - लोग सचमुच अगर जाग जाते तो फिर अंग्रेज़ो का भारत में रहना मुश्किल था इसलिए सावरकर को इंग्लैंड में बंदी बनाकर जहाज से
भारत भेजा गया. सावरकर जानते थे की एक बार जेल में फसे तो फसे फिर ये चालाक अगंरेज
हमे देश की आज़ादी के लिए कुछ नहीं करने देंगे. इसलिए चलती जहाज से सावरकर समुन्दर
में कूद गए और तैर कर फ्रांस के किनारे पहुंच गए. दुर्भाग्य वश वहा उन्हें कोई सही
मदत नहीं मिली और ब्रिटिश सैनिकोंने उन्हें पीछा कर कर पकड़ लिया - ये एक और गुनाह
उनके सर चढ़ गया. और इसलिए अंग्रेजो ने उन्हें दो उम्र कैद की सजा दी वो भी काला
पानी मतलब अंदमान के आयलैंड पर.
सावरकर मुस्कुराये - उन्होंने कहा दो उम्र कैद? दो
दो बार आजीवन कारावास? लगता है क्रिस्चियन अंग्रेज़ो को भी हिन्दू पुनर्जन्म की संकल्पना पर
विश्वास हो गया है, इस जनम में मरने तक कारावास और फिर अगला कारावास अगले जनम के लिए.
अंदमान के कारावास में वहा का जेलर एक आयरिश बारी था और उस बारी के
चमचे कुछ मुस्लिम पठान सिपाही थे. बारी को भारतीयों से नफरत थी और आज़ादी के लिए लड़ने
वालो से तो बहोत ज्यादा. और उन मुस्लिम सिपाहियोंको हिन्दू काफिरो से नफरत थी. उन
सब ने मिलकर सावरकर और सारे आज़ादी के लिए लड़ने वाले हिन्दू सिख बौद्धों पर बहोत
अत्याचार किये. वहा पुरे देश से और म्यांमार श्रीलंका से भी बंदी लाये गए थे. बारी
और अँगरेज़ जहा उन सब पर क्रूर से क्रूर अत्याचार करते वही पठान सिपाही इस ताक में
लगे रहते की कोई भोला भला हिन्दू काफिर उनके जाल में फसे तो उसका धर्म परिवर्तन
कराकर उसे मुसलमान बनाया जाये.
उस नरक सामान जेल में सावरकर ने दुगनी लड़ाई लड़ी - एक तरफ अंग्रेज़ो के
खिलाफ उनके अन्याय पूर्ण बर्ताव के लिए तो दूसरी तरफ धरम के अंधे पठान मुस्लिम सिपाहीयो के जाल से.
कई बंदी तो बेचारे इतना क्रूर राक्षसी अन्याय सेह नहीं पाते और
आत्महत्या कर लेते, तो कई को अँगरेज़ और पठान पागल होने तक मारते रहते, एक
बंगाली नवयुवक को मुसलमान बनने से बचने के चक्कर में सावरकरजी ने पठान सिपाहियोसे
हमेशा का बैर मोल ले लिया - उन सिपाहियों ने सावरकर के बारे में बहोत गलत सलत
अफ़वाए फैलाई, उन्हें परेशां करने के लिए हमेशा कोई न कोई काम किया.
लेकिन कुछ ही सालो में सावरकर ने अंदमान जेल के अंदर सारे ही आज़ादी
के लिए लड़ने वालो के बिच अपने लिए आदर और सन्मान की जगह बनायीं, वे
सारे उन्हें अपना नेता मानने लगे, इससे जेलर बारी और मुस्लिम सिपाही
सावरकर पर ग़ुस्सा होते.
एक सिख स्वंतत्रता सेनानी जो वयस्क थे उनको अँगरेज़ और मुस्लिम
सिपहीयोने मु से खून की उल्टिया होने तक मारा. सीखो को बाल धोने के लिए भी पानी
नहीं दिया जाता. मुस्लिम सिपाही और गुन्हेगार बंदी एक होकर आज़ादी के सिपाहियोसे
काम करवाते खुद नमाज़ के बहाने कई सारे काम टाल जाते और दुसरो को लालच देते की आओ
मुसलमान बनो और इन कठिन कामो से बचो - हिन्दू सिख लड़को को वो गाय का मॉस खिला देते
जिससे खुद हिन्दू सिख ही अपने लोगो का बहिष्कार कर देते उन्हें मुस्लमान कह देते.
सावरकर ने अपने लोगो को समझाया और ऐसे बेचारे लड़को को वापिस हिन्दू धर्म में ले आये -
इस कारण कई मुसलमान सिपाही सावरकर को परेशान करते
एक ने तो उनके बड़े भाई पर जान लेवा हमला भी कर दिया था, एक
ही जेल में रहकर भी सावरकर को अपने बड़े भाई से मिलने की अनुमति नहीं थी. उनके
क्रन्तिकारी विचारो के कारण अंग्रेज़ो ने हमेशा सावरकर और उनके भाइयोंको बहोत
खतरनाक शत्रु माना. अँगरेज़ जानते थे की अगर फांसी देते तो ये शहीद कहलाते और कई
लोग उनका अनुकरण करते और लोगो में डर पैदा करने के लिए सावरकर और उनके भाई को मौत
से मुश्किल सजा दी गयी - काला पानी - उम्र कैद अंदमान के सेलुलर जेल में.
सावरकर, उनका परिवार और उनके मित्र सभी ये मानते थे की जेल में उम्र कैद में रह कर तो जीवन
व्यर्थ ही जाता, उस जीवन का न तो
देश को कोई उपयोग होता न तो खुद को - और उस नरकसमान जेल में जो यातनाये झेलनी पड़ती
वो तो किसी भी मानव के लिए सहना मुश्किल था. सावरकर को तो अँगरेज़ और मुस्लिम
सिपाही दोनोही दुःख दे रहे थे और इसलिए सावरकर ने उस जेल से छुटकारा पाने की
कोशिशे की. अदालत में पुहार लगायी, अन्य आज़ादी के लड़ने वालो से मदत मांगी,
अंग्रेज़ो
के विरोधी अन्य देश के लोग भी सावरकर की कहानी, उनका त्याग और दुःख की कहानी सुनकर उनके प्रति आदर दिखाते -
सावरकर समज गए की उनको अगर राष्ट्र समाज
और धर्म के लिए कुछ करना है तो कुछ न कुछ कर कर जेल से छूटना होगा. वे कोशिशे करते
रहे, जो अँगरेज़ खुद अन्याय कर रहे थे, जो अँगरेज़
निष्पाप भारतीय जनता को लूट रहे थे, एशिया और अफ्रीका के कई देशो को गुलामी
की अमानवीय जंजीरो में दाल रहे थे - उन अंग्रेज़ो के साथ क्या सच्चाई और क्या
नीतिमत्ता?
सावरकर ने ऐसा ही कुछ सोच समज कर शायद माफ़ी के लिए पत्र लिखे या फिर
उन्हें बदनाम करने के लिए जेलर या सिपहीयोने उनके नाम से लिखे पता नहीं...... वैसे भी उनके माफ़ी के पत्र स्वीकार नहीं किये गए - अंग्रेज़ो ने उन्हें नहीं
छोड़ा.
दस साल की सजा के बाद - सरदार वल्लभ भाई पटेल और बाल गंगाधर तिलक
जैसे बड़े बड़े नेताओंके जोरदार दबाव के बाद अंग्रेज़ो को उन्हें अंदमान के काला पानी
की सजा से मुक्त करना पड़ा. लेकिन उनपर शर्ते थी की वे राजनीति से दूर रहे.
तब तक तो उनकी तबियत लग बघ न के बराबर हो गयी थे, कई
सारी बीमारिया हो गयी थी. वे थक चुके थे, नरकसमान कारावास ने उनके मन मष्तिक पर
बहोत ही गहरा आघात कर दिया था. वे अकेला रहना चाहते थे. वे शारीरिक तौर पर कमजोर
हो गए थे.
उनकर उर्वरित जीवन भी देश धर्म समाज को ही समर्पित था. उन्होंने छुआ
छूत के खिलाफ आंदोलन किया, हिन्दुओमे एकता निर्माण करनेका प्रयास
किया. मराठी में कई सारे नए शब्द निर्माण किये ताकि अंग्रेजी या उर्दू शब्दों का उपयोग न करना पड़े. उन्होंने जो कविताये, लेख, किताबे लिखी वो
तो मराठी साहित्य में सबसे महान श्रेणी में मानी जाती है.
उनका जयोस्तुते जयोस्तुते -
यह गीत आज भी हर किसी को प्रेरणा देता है, स्फूर्ति देता है - उत्साह देता है.
उनका गीत 'ने मजसी ने परत मातृभूमिला....' एक महान काव्य
है.
हरिजनों के लिए मंदिर खुलवाना, हिन्दू एकता के
लिए पुरे भारत में भ्रमण करना ऐसे कई काम वो अपने वृद्धवस्था में करते रहे. देश
स्वतन्त्र होने के बाद भी उन्हें वो सन्मान नहीं दिया गया जिसके वे हक़दार थे. असली
त्याग और सेवा करनेवालों के साथ पता नहीं
क्यों इतना अन्याय हो जाता है.......
गांधीजी के दुखद वध के बाद - सावरकर जी को भी कैद किया गया, नाथूराम
गोडसे जिसने गांधीजी को मारा था उसने साफ़ कहा था की सावरकर या अन्य किसी का इससे
कोई लेना देना नहीं फिर भी उन्हें कैद किया गया - पर कोई भी सबुत
न होने के कारण उन्हें मुक्त किया गया. गांधीवध के बाद हुए दंगेमें सावरकर का घर
जलाया गया और उनके भाई पर हमला भी हुआ. वो समय उन्होंने बड़ी मुश्किल से निकाला.
पूरी आयु देश के लिए देदी, पूरा परिवार देश की आज़ादी के लिए हर
सुख को हर आनंद को त्याग कर गया... कितनी यातनाये सही फिर भी अंत तक देश धर्म और
समाज के लिए कार्य करते रहे. हम कौन होते है इतने महान देशभक्त पर भला बुरा कहने
वाले...... हमे तो उनका वंदन करना चाहिए.
एक ऋषि के तरह उन्होंने अंत में अन्न जल का त्याग कर अपने देह को भी
त्याग दिया, अपना जीवित कार्य पूरा होने पर जीने की क्या आवश्यकता ऐसा कह कर अपने
हर सुख संपत्ति का त्याग करने वाले वीर सावरकर ने अपने प्राण भी त्याग दिए.
माझी जन्मठेप अर्थात मेरी उम्र कैद - यह उनका उपन्यास उनकी काला पानी
की सजा के दिनों के बारे में हमें सब कुछ
बताता है. इसे पढ़ कर भी हम असहज हो जाते है तो सोचिए कैसे उन्होंने वहा इतने वर्ष
व्यतीत किये होंगे.
वीर सावरकर जैसे कई महान वीरो की ही देन है की हम आज स्वंतंत्र है.
हर मत, हर जाती, हर धर्म, हर विचारधारा, हर राजनैतिक पक्ष से ऊपर उठ कर हमे
सावरकर जैसे महान देश भक्तो का आदर करना चाहिए, चाहे हर विचारो
से हम सहमत हो न हो - वे निश्चित ही पुरे भारत के लिए वंदनीय है.
२८ मई उनका जन्मदिन है और मै अपने आप को भाग्यशाली मानता हु की इसी
तारीख को मैंने उनका मराठी उपन्यास मांझी जन्मठेप पढ़ कर पूरा किया.
वंदे मातरम